लम्बे अरसे से एक फिल्म का इंतजार कर रही थी, जिसका नाम है थार। फिल्म के इंतजार की वजह यही है कि पहली बार अनिल कपूर और उनके बेटे हर्षवर्धन कपूर साथ काम कर रहे हैं, ऐसे में फिल्म का लबो-लुआब भी ट्रेलर देख कर काफी प्रभावित कर रहा था, अब फिल्म किस हद तक मुझे प्रभावित कर पायी या नहीं, मैं यहाँ विस्तार से बता रही हूँ। आगे बढ़ने से पहले मैं जरूर कहना चाहूंगी कि लम्बे समय के बाद, मुझे किसी फिल्म की सिनेमेटोग्राफी इस कदर पसंद आयी है।
क्या है कहानी
कहानी की पृष्ठभूमि राजस्थान के मुनाबो इलाके की है, कहानी पुलिस इंस्पेक्टर सुरेखा सिंह (अनिल कपूर) और एंटीक डीलर सिद्धार्थ ( हर्षवर्धन कपूर) के इर्द-गिर्द घूमती हुई है। सुरेखा को जिंदगी आराम से जीने की आदत है, अब वह रिटायर भी होने वाले हैं और वह चाहते हैं कि उसके साथ कुछ ऐसा हो जाए कि जिसे सुलझा कर वह हीरो बन जाए, जाते-जाते और उसकी यह ख्वाहिश पूरी भी हो जाती है, जब अचानक उसके इलाके में क़त्ल होने लगते हैं और अफीम का बाजार गर्म हो जाता है। तस्करी चल रही है। सिद्धार्थ बहुत सीधे साधे दिखते हैं। लेकिन इस सीधे साधे चेहरे के पीछे का उद्देश्य क्या है, यही फिल्म का असली रोमांच है। कहानी में कई सारे ट्विस्ट हैं, जो एक के बाद एक किरदारों के माध्यम से दर्शकों के सामने आते हैं। फातिमा सना शेख, मुक्ति मोहन और सतीश कौशिक फिल्म में अहम किरदारों में हैं और कई ट्विस्ट लेकर आते हैं।
बातें जो मुझे पसंद आयीं
इस फिल्म की सिनेमेटोग्राफी श्रेया देव दुबे की है और मैंने काफी अरसे के बाद, किसी हिंदी फिल्म में आउटडोर लोकेशंस में यह कमाल का काम देखा है, एक तो इस फिल्म में निर्देशक ने कहानी के लिए लोकेशंस ही एकदम अलग चुने हैं, जो मुख्यधारा की फिल्मों से जुदा हैं। और उन्होंने तकनीकी पक्ष को काफी मजबूत रखा है। फिल्म में ऐसे कई एक्शन सीन्स और चेजिंग सीन्स हैं, जो मुझे तो बेहद पसंद आये हैं और बाकी फिल्मों की तुलना में एकदम अलग हैं। फिल्म में अगर निर्देशन की बात करूँ तो ऐसी कहानियों में बोरियत होने की पूरी गुंजाइश होती है, लेकिन राज चौधरी ने निर्देशन के माध्यम से भी रोमांच और रहस्य को बरक़रार रखा है। इस फिल्म के कास्टिंग निर्देशक की भी तारीफ़ होनी चाहिए, क्योंकि फिल्म देखते हुए मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि वह कलाकारों की खूबियों और कमियों से वाकिफ हैं और उनके आधार पर ही कलाकारों के लिए किरदार लिखे गए हैं। इसलिए कहानी अंत तक बाँध कर रखती है। यहाँ निर्देशक ने रेगिस्तान को भी एक किरदार बनाया है, जहाँ कहानी की गुत्थी उलझती भी है और रोमांच भी देती है। दिलचस्प यह भी है कि बेटे और पिता की रीयल जोड़ी, फिल्म में पिता और बेटे के रिश्ते में नहीं, दोनों के बीच का कॉन्ट्रडिक्शन कमाल का है। फिल्म जिस तरह से रिवेंज ड्रामा का रूप लेती है, कहानी का जो नैरेटिव है, वह लॉजिकल लगता है। निर्देशक ने महिला पात्र को कम दृश्यों में दिखाया है, लेकिन वे अहम पड़ाव लाती हैं फिल्म में।
अभिनय
हर्षवर्धन कपूर को मैं डायरेक्टर एक्टर मानती हूँ, भले ही उनकी पहली फिल्म कामयाब न रही हो, लेकिन हाल ही में उन्होंने एक anthology फिल्म में काम किया था और उनका किरदार मुझे बेहद पसंद आया था। इस फिल्म में वह और निखरते हैं, उनकी मेहनत दिखती है। वह एक नेचुरल एक्टर के रूप में नजर आते हैं। हर्षवर्धन को इस फिल्म में देख कर, मेरा विश्वास और जागा है कि वह इंटेंस किरदारों को अच्छी तरह निभा जाते हैं। अनिल कपूर को देख कर तो मुझे ऐसा लग रहा है कि झकास अभिनय करने में, वह अपनी एक के बाद एक पिछली फिल्मों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं। फातिमा सना शेख ने फिल्म के अंतिम कुछ दृश्यों में चौंकाया है। मुक्ति मोहन मुझे फिल्म में सरप्राइज पॅकेज लगी हैं। उन्होंने अपने किरदार को बखूबी जिया है। सतीश कौशिक अपने चित-परिचित अंदाज में ही दिखे हैं।
बातें जो और बेहतर हो सकती थीं
कहानी में कई परतें हैं, कहानी में रहस्य है, ओपनिंग भी कहानी की अच्छी है, लेकिन बीच में कहानी कई जगहों पर गिरती और रोमांच खोती हुई नजर आती है। कहानी अलग जॉनर और स्टाइल में बनाई और लिखी गई है, ऐसे में थोड़ा और रोमांच बरक़रार रहता तो फिल्म और कमाल हो सकती थी।
कुल मिला कर मैं कहूँगी कि डार्क संस्पेंस थ्रिलर में यह फिल्म अमूमन दिखाई जाने वाली कहानियों से अलग है, कई लिहाज से यह फिल्म मेरी उम्मीदों पर खरी उतरती है। वन टाइम वॉच तो यह फिल्म निश्चिततौर पर है।