हुसैन जैदी की किताब ‘माफिया क्वींस ऑफ़ मुंबई’ पर आधारित कमाठीपुरा की गंगूबाई की कहानी से प्रेरित है संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’, बात जब संजय लीला भंसाली की फिल्मों की होती है, तो मैं एक अलग तरह के ऑडियंस की नजर से फिल्म देखने जाती हूँ, क्योंकि भंसाली अपनी एक अलग दुनिया रचते हैं, उनकी फिल्मों में जिंदगी की पोएट्री होती है, अपना कैनवास होता है, जिस पर वह अपने रंग भरते हैं। अपनी काल्पनिक दुनिया को वह इस कदर गढ़ते हैं कि वह काल्पनिक दुनिया भी अपनी सी लगने लगती है। लेकिन इस बार संजय लीला भंसाली उस कैनवास और स्वप्नीली दुनिया में दर्द लेकर आये हैं, इस बार उनका कैनवास खूबसूरत तो है, वहां खुशबू भी है, लेकिन काले गुलाबों वाली। वहां हर तरफ खूबसूरती और हुस्न की बयार है, लेकिन वह एक बाजार है, व्यापार है। कमाठीपुरा की लगभग 4000 महिलाओं के दर्द की कराह गंगूबाई के रूप में आवाज बन कर, हम तक पहुंची है। मुंबई की यह वह बदनाम गली है, जहाँ हर दिन बारात लगती है, लेकिन कभी डोली नहीं उठती। जी हाँ, बारात लगती है, जिस्म का व्यापार करने वाली और उनके जिस्म से खेलने वालों की। संजय लीला भंसाली ने गंगूबाई के रूप में कमाठीपुरा की तमाम सेक्स वर्कर की आवाज को बुलंद किया है। इस बार फैंटेंसी नहीं है, हकीकत से भरी कहानी है, जिसे देखने के बाद समाज के सामने कई सवाल खड़े कर देता है। गंगूबाई एक ऐसी औरत की कहानी है, जिसे धोखे से कमाठीपुरा में महज 1000 रुपये में उसका प्रेमी बेच देता है, फिर एक बार उस बदनाम गली में आने के बाद, वह लड़की वापस नहीं लौट पाती है। काफी दर्द और जुल्म सहने के बाद, वह इसे ही अपनी नियति तो मान लेती है, लेकिन इसके साथ ही जीने का फैसला नहीं करती, बल्कि अपनी आवाज बुलंद करती है और अपनी जैसी 4000 महिलाओं की आवाज बनती है, उनकी हक़ की बात करती है कि दुनिया में पैसे कमाने के लिए हर कोई धंधा करता है तो हम सेक्स वर्कर्स को हीन भावना से क्यों देखा जाता है। आलिया भट्ट ने संजय लीला भंसाली के निर्देशन में खुद को पूरी तरह से गंगूबाई के किरदार में ढाला है। बॉडी लैंग्वेज से लेकर दमदार संवाद बोलने में वह बिल्कुल नहीं चूकी हैं, खासतौर से कुछ इमोशनल दृश्यों को उन्होंने जिस तरह से निभाया है, वह मेरे जेहन में तो लम्बे समय तक ज़िंदा रहेगी। नि: संदेह आलिया की मेहनत और भंसाली के विजन ने गंगूबाई काठियावाड़ी को एक अहम फिल्म बना दिया है। साथ में अजय देवगन के चंद दृश्यों में भी मजबूत उपस्थिति इस फिल्म को और सार्थक बनाती है। फिल्म में ऐसे कई दमदार संवाद और इमोशनल दृश्य हैं, जो बतौर महिला होने की वजह से सीधे दिल में चुभते हैं, ऐसी महिलाओं की कहानी, जिन्होंने बिना डरे, पुरुष समाज में अपने लिए नहीं, बल्कि 4000 महिलाओं के भले के बारे में सोचते हुए, हर परेशानी को गले लगाया, ऐसी मिसाल बनी महिलाओं की कहानी बनती रहनी चाहिए। फिल्म का एक संवाद है कि गंगूबाई चाँद थी, चाँद ही रहेगी, जो कमाठीपुरा इलाके से वाकिफ होंगे और इस गलियों के चप्पे-चप्पे की खाक छानी होगी तो वह इस बात से वाकिफ होंगे कि वाकई कमाठीपुरा ने गंगूबाई को सम्मान और प्यार देना नहीं छोड़ा है, आज भी हर गली, हर चौक पर वहां उनकी पोस्टर और तस्वीरें लगी हुई हैं।
कहानी
कहानी काठियावाड़ी में रहने वाली गंगा (आलिया भट्ट) से शुरू होती है, जिसे एक्ट्रेस बनना है और मुंबई जाना है। एक बैरिस्टर की घर की लड़की को झूठा झांसा देकर उसका प्रेमी कमाठीपुरा में महज 1000 रुपये में शांति मौसी (सीमा पाहवा) के पास बेच देता है। मासूम-सी गंगा को जबरन देह व्यापार में घसीट दिया जाता है। और गंगा गंगू बन जाती है। लेकिन गंगू भी ठान लेती है कि वह अपने और अपनी जैसी बाकी लड़कियों के साथ अन्याय नहीं होने देगी। देह व्यापार भी है तो है, इसे भी सम्मान के साथ जियेगी। इसके बाद उसके सामने कई कांटे आते हैं, शांति मौसी, रजिया बाई और पूरा का पूरा समाज। मासूम-सी दिखने वाली गंगू में कब आग आ जाती है और वह हक़ की लड़ाई लड़ने लगती है, पता ही नहीं चलता है। उसे इसी क्रम में रहीम( अजय देवगन) का साथ मिलता है, जो माफिया किंग है, लेकिन अपने उसूलों का पक्का है। गंगू को उसने बहन बनाया है तो उसकी इज्जत की हिफाजत करना भी अपना धर्म मानता है। गंगू धीरे-धीरे अपने नेक कामों से पूरी कमाठीपुरा की महिलाओं के दिलों में जगह बनाती है। उसका सम्मान बढ़ता है , लेकिन रजिया (विजय राज) से उसका कड़ा मुकाबला है। ऐसे में कैसे गंगू अपनी जगह बनाती है और महिलाओं के हक की बात करती है, इस पूरे संघर्ष की दास्ताँ देखने के लिए फिल्म देखनी चाहिए। जहाँ हर तरफ मर्द के रूप में हैवानित है, गंगू की जिंदगी में अफ़सान (शांतनु माहेश्वरी) और बिरजी भाई जैसे नेक मर्द भी आते हैं, जिसमें अफ़सान गंगू की जिंदगी में प्यार लाता है और बिरजी गंगू की आवाज बनते हैं। बिरजी भाई( जिम सरभ) जैसा एक सच्चा पत्रकार, गंगू की जिंदगी में आता है, जो गंगू की आवाज को कमाठीपुरा से निकाल कर, पूरी दुनिया में पहुंचाता है। देह व्यापार में हैं तो, क्या इज्जत हमारी भी है और इज्जत से ही जीने का, इसी फंडे पर गंगू ने अपनी जिंदगी के फलसफे को जिया है। गंगू कमाठीपुरा की महिलाओं के लिए वह सब कर जाती हैं, जो पहले कभी नहीं हुआ था, वैश्या की बेटी वैश्या नहीं बनेगी, स्कूल जाएगी, कमाठीपुरा में भी लड़कियों की शादी से लेकर और भी परोपकार वाले काम गंगू ने करवाए। इन सबके बीच गंगू का अपना दर्द, अपने परिवार को खोने का ताउम्र उन्हें सालता रहता है। एक अकेली लड़की, कैसे यह सब झेलती है, लेकिन बुलंद आवाज बनती है, इस पूरे सफर को देखने के दौरान कई बार मेरे रोंगटे खड़े हुए, कई बार आँखों में आंसू आये और कई बार समाज से पूछने के लिए सवाल जेहन में आये। बहुत बोल्ड, बिंदास, बेखौफ और निडर दिखने वाली बुलंद गंगू के दिल में एक बच्चा छुपा होता है, जो प्यार करना चाहता है, अपना परिवार का साथ चाहता है, गंगू के इस दर्द को कई दृश्यों में बड़े भावुक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है।
बातें जो मुझे अच्छी लगीं
क्राफ्ट
- निर्देशक संजय लीला भंसाली की कहानियों में इमोशन से कोई समझौता नहीं होता है, साथ ही वह अपना एक क्राफ्ट लेकर चलते हैं, जिनके बारे में चर्चा किये बगैर फिल्म की बात पूरी नहीं हो सकती है। भंसाली ने जो पूरा कमाठीपुरा रचा है, वह कैनवास दिखने में फैंटेसी वाला नहीं है, बल्कि हकीकत के बेहद नजदीक है। उन्होंने ओल्ड बॉम्बे के उस दौर में, इस बदनाम गली की गंदगी को फैंटेसाइज नहीं किया है, बल्कि उसे ज्यों का त्यों रखा है। फिल्म के 200 दिन की शूटिंग में केवल नाइट शॉट्स लिए गए हैं, यह एक दिलचस्प फैक्ट है फिल्म के बारे में और फिल्म में ऐसा क्यों है, यह उनके पूरे माहौल देख कर समझ आता है। ब्ल्यू कलर के साथ भंसाली ने बेहतरीन तरीके से कमाठीपुरा के दर्द से भरी दुनिया को दिखाने की कोशिश की है, न सिर्फ लीड किरदारों के बल्कि, शेष कलाकारों के कॉस्ट्यूम तक में बारीकी रखी गई है, इसके लिए कॉस्ट्यूम निर्देशक शीतल इक़बाल शर्मा की तारीफ होनी चाहिए कि उन्होंने भंसाली के विजन को शेप दिया है। इस फिल्म के बैकड्रॉप, बैकग्राउंड, माहौल को एक कैरक्टर के रूप में अच्छे से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म में एस्थेटिक की बात करें तो वह बिल्कुल कहानी से मेल खाती हुई है। फिल्म का गीत संगीत फिल्म के मूड के अनुसार बेहद सटीक है। भंसाली ने इसमें चार चाँद लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
संवाद
गंगूबाई की ताकत उसके संवाद हैं, निर्देशक ने गंगूबाई को हीरोइक अंदाज़ देने में कोई कमी नहीं छोड़ी है, फिल्म के संवाद कई जगह इमोशनल करते हैं तो कई जगह रोंगटे भी खड़े करते हैं। संवाद सिर्फ कहने को संवाद नहीं हैं, हर संवाद के पीछे एक कहानी है, एक दास्तान है।
संघर्ष के दास्तां
गंगूबाई एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो एक पढ़े-लिखे घर से आई होती है और हालातों के मजबूर होकर वह देह व्यापार में आ जाती है, लेकिन वह स्वार्थी बन कर नहीं जीती, बल्कि पूरे कमाठीपुरा के विकास के लिए, इज्जत के लिए लगातार लड़ाई लड़ती है। आलिया के माध्यम से काफी इमोशन के साथ इस पूरे संघर्ष को दर्शाया गया है। फिल्म कई मिथ तोड़ती है कि यह महिलाएं खूंखार होती हैं, सिर्फ धंधा करना जानती हैं, इनके कोई उसूल नहीं होते, इनका कोई ईमान नहीं होता। जबकि यही महिलाएं नेक काम, समाज सुधार, बच्चों की शिक्षा और समाज के कई नेक काम करती है। फिल्म देखने के बाद, अगर इन महिलाओं के प्रति समाज थोड़े भी सम्मान की नजर देखना शुरू करें, तो फिल्म का एक अच्छा इम्पैक्ट माना जाएगा। एक महिला जिसने हक़ की बात करने के लिए देश के प्रधानमंत्री के सामने भी आँखें मिला कर बात की थी, ऐसी कहानी दर्शकों के सामने आनी ही चाहिए।
अभिनय
आलिया भट्ट ने गंगूबाई के रूप में सार्थक काम किया है। उनकी मेहनत संवाद अदायगी से लेकर, चाल-ढाल, एक्सप्रेशन और इमोशनल दृश्यों में हर जगह नजर आया है। कभी मासूम सी गंगू तो कभी दमदार गंगू, आलिया भट्ट की मेहनत साफ दिखती है। जो लोग बार-बार आलिया की कास्टिंग को लेकर सवाल कर रहे थे, वह फिल्म देखेंगे तो खुद अपनी बात पर उन्हें शर्म आएगी। भंसाली की फिल्मों की यह खासियत रही है कि वह केवल अपने लीड किरदारों पर नहीं, बल्कि पूरी कास्टिंग में बारीकी रखते हैं और हर किरदार की अपनी दुनिया तैयार करते हैं। इस फिल्म में भी उनकी वह दुनिया दिखी है। गंगू का साथ देने वाली उसकी दोस्त के किरदार में इंदिरा तिवारी इस फिल्म की जान हैं, लालची, मतलबी और खूंखार मौसी के रूप में सीमा पाहवा का काम सार्थक है। अजय देवगन बहुत कम दृश्यों में आये हैं, लेकिन अपनी सार्थक उपस्थिति छोड़ जाते हैं, उनमें इंटेंस किरदारों को प्ले करने की जो सहजता है, वह उनके काम को हमेशा ही देती है। शांतनु माहेश्वरी के लिए इससे अच्छा डेब्यू नहीं हो सकता था। जिम सरभ ने पत्रकार की भूमिका में काफी अच्छा काम किया है, जमाने बाद किसी पत्रकार की भूमिका को परदे पर बेहतर दिखाया गया है। विजय राज के किरदार और आलिया के किरदार के बीच की मुठभेड़ फिल्म के सबसे अहम दृश्यों में से एक हैं।
बातें जो और बेहतर होने की गुंजाईश थी
गंगूबाई अपने आप में सार्थक किरदार हैं, साथ ही आलिया जब इस रोल को निभा रही हैं तो निर्देशक के पास पूरी गुंजाईश थी कि वह उन्हें दमदार डायलॉग की बजाय कुछ दृश्यों में इमोशन से प्ले करने का मौका दें, लेकिन कहीं न कहीं हीरोइक अंदाज़ दिखाने के लिहाज से, वे इमोशनल हिस्से दब गए हैं, जो कहीं न कहीं कहानी को थोड़ा कमजोर बनाते हैं।
बहरहाल, थोड़ी बहुत खामियां हर क्राफ्ट मैन के काम में होती हैं, लेकिन उसको नजरअंदाज करते हुए मैं तो भंसाली को इस बात का श्रेय देना चाहूंगी कि वह ऐसी महिला प्रधान फिल्म के विषय को लेकर आये हैं, जिससे एक ऐसी महिला की कहानी, जिसने कभी अपने बारे में नहीं, बल्कि उस वर्ग के लिए सोचा, जिसे हमेशा हीन समझा जाता है, उनके अस्तित्व की लड़ाई लड़ी, यह कहानी दुनिया को जाननी तो चाहिए ही। ‘गंगूबाई काठियावाड़ी ‘ सिर्फ एक महिला की नहीं बल्कि ४००० महिलाओं की कहानी हैं, जिनके अस्तित्व की बात कभी नहीं होती, यह फिल्म उन्हें आवाज देती है।